मैंने किसी के मुँह से सुना वो कह रहा था कि उसने कल रात रेडियो पर देश की आज़ादी के बारे में चर्चा करते हुए कई भारतीय दिग्गज नेता और ब्रिटिश नेताओं के वार्तालाप को सुना। आपस में बात करते हुए ब्रिटिश नेता कह रहे थे कि हमें भारत देश को आज़ाद करना पड़ेगा।
संयुक्त राष्ट्र के गठन और द्वितीय विश्व युद्ध के ख़त्म होने के बाद इस बात पर चर्चा हो रही थी कि अब ब्रिटिश हुकूमत और अन्य देशों की हुकूमतो को ख़त्म करके छोटे और बड़े देशों को एक नई दुनिया से अवगत कराना पड़ेगा। लोग खुश थे कि उन्हें इतने सालों की गुलामी के बाद अब आज़ादी की एक नई सुबह देखने को मिलेगी लेकिन ये आज़ादी अपने साथ एक नई क़यामत लाने वाली थी।
विभाजन !!
यह विभाजन क्या हैं? उसने पूछा!
मतलब देश का बंटवारा !!
इस प्यारे से देश के दो टुकड़े होने वाले थे। मुसलमान लोग अपने लिए एक अलग देश की मांग कर रहे थे उन्हें वो इलाके चाहिए जहाँ मुस्लिम लोग रहते हैं। और वो इस देश का नाम पाकिस्तान रखना चाहते थे। कुछ लोग इस बात के पक्ष में थे तो कुछ विरोध भी कर रहे थे। इतने सालों की ख़ुशी को किसी की नज़र लगने वाली थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि जिन लोगों के हाथों में कुछ करने की ताकत थी शायद वो भी मजबूर थे।
अपने ही अपनों के बीच अब दुश्मन लगने लगे थे। शायद वो कभी अपने थे ही नहीं बल्कि अपनेपन का नाटक कर रहे थे। वरना इतने सालों के प्यार को भुला कर अचानक ही दुश्मन कैसे बन गए?? अब आगे क्या होगा, उसने बड़े ही निराशाजनक शब्दों से फिर पूछा! कुछ नहीं, जो होगा अच्छा ही होगा, जो होगा उसे भी आगे देख ही लेंगे, “मैंने कड़क होकर कहा। ”
उन दिनों अन्तर्राष्टीय मीडिया भी सुर्ख़िया बटोर रहा था। किसी ने क्या लिखा किसी ने क्या दिखाया। वो ऐतिहासिक दिन भी आ गया जब बहुत सारी विपत्तियों के साथ देश आज़ाद हो गया और सबके दिल में एक चुभन भी दे गया। लोग एक दुसरे के खून के प्यासे हो गए थे। दोनों तरफ एक ही मंज़र था। कब लोग अपने देश में ही विदेशी हो पता ही नहीं चला? अख़बारों, रेडियो, और टीवी के माध्यम से लोगों से विनती की जा रही थी कि हिंसा ना फैलायें, दंगा फ़साद ना करें। लोगों की मदद करें लेकिन सुने कौन? दोनों तरफ से अपने अपने लोगों को निकालने की पूरी कोशिश की जा रही थी लेकिन इन सबके बावजूद कुछ लोग फँस गए थे। हम भी उनमे से एक थे हमारे साथ गैरों जैसा बर्ताव किया जा रहा था। काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा था।
उस ज़माने में बन्नू जिले का प्यारा शहर बन्नू बस नाम का अपना बन के रह गया था क्यूंकि पता नहीं था कि कब तक यहाँ है और कब कहीं और। फिर एक दिन अपने आप को छुपते छुपाते प्यारे शहर बन्नू को छोड़ दिया और वहाँ की यादें साथ ले ली। बीच मे जब थोडा वक़्त मिल जाता था तो दिमाग शहर की ओर दौड़ता। इस शहर के कच्चे मकानों में मेरा जन्म हुआ और बचपन गलियों में बीता। अभी जवानी फिर बुढ़ापा और...................................!!!!!
शहर की बात ही कुछ और थी कैसे सब सुबह जल्दी उठकर खेतों में जाया करते थे। दोपहर को माँ खाना लेकर खेतों में आया करती थी। आमों, अमरुदों और जामुन के पेड़ के बीच पूरा दिन बीतता था। त्योहारों के अपने ही रंग होते थे, मेल मिलाप और ढेर सारा पकवान। काम के नाम पर बहुत कुछ था इतना की रात को घोड़े बेच कर सोते थे। भैंसों को चारा खिलाना, खेत में काम करना ना जाने कितने काम। शादियों की तैयारी बहुत पहले से चालू हो जाया करती थी। पूरे बारात को गाँव में ठहराना एक जिम्मेदारी वाला काम होता था। छोटी छोटी दुकानों में मिलने वाली चीज़ें जो ताउम्र याद रहेंगी। ना जाने ऐसी कितनी बातें इस वक़्त ना चाहते हुए भी क्यों दिमाग में घर कर रही थी। दिन भर की भूख, प्यास, थकान अब कमबख्त ये नींद बस सो ही जाऊ। सुबह से लोगों की चहल पहल की आवाज़ कानों में आ रही थी लेकिन थकान के कारण उठ नहीं पा रहा था। इसी बीच ट्रेन की तेज़ सीटी ने उठने पर मजबूर कर ही दिया। आँख मसलते हुए मैंने किसी से पूछा कि, भाई यह कौनसी जगह है? “हिंदुस्तान, उत्तर मिला। सुन कर थोड़ा सुकून मिला साथ ही थोड़ा दुःख भी हुआ। जो छूट गया उसे भुला दिया और जो मिल गया उसे अपना लिया वाली बात मानकर मैंने फिर से एक नए सिरे से ज़िन्दगी जीने के बारे में सोंचा। रही सही यादें, परिवार, भाई बन्धु सब पीछे छूट गये थे। ताज़े घावों पर वक़्त के मलहम ने अपना असर खूब दिखाया लेकिन निशान अभी भी बाकी थे। अर्सा बीत गया अपने आप को सँभालने में, लडखड़ाने के बाद संभलना आ ही गया। अब मेरा अपना परिवार हैं। बच्चे, पोते-पोतियाँ, नाती-नातिन से भरा पूरा परिवार किसी के लिए कुछ तो किसी के लिए कुछ। वक़्त के पहिये की गति सच में तेज़ थी। आज जब भी स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है तो आँखें नम हो जाती है। आज़ादी के समय का मंज़र इतने सालों के बाद भी आँखों के सामने मंडराने लगता हैं। अपने शहर और अपनों को खोने का दुःख क्या होता है वो खोने वाले को ही पता होता है। कभी कभी इच्छा होती है कि अपने शहर बन्नू जाऊ और अपनों से मिल आऊ लेकिन वर्षों पुराने कत्लेआम को याद कर ठहर जाता हूँ। दिल में एक टीस हमेशा से ही रहती हैं। काश हमने अपना बन्नू शहर ना छोड़ा होता तो मैं अभी भी पुराने वाले उस कच्चे मकान में रह रहा होता! फिर सोंचता हूँ कि देश को आजादी ही ना मिली होती।
ना आजादी का जश्न होता ना विभाजन!!!
nice story
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